राजनीतिक विश्लेषक प्रकाश पुंज ने लॉकडाउन के बाद केंद्र और राज्य सरकारों के सामने 4 बड़ी चुनौतियां गिनाईं… पढ़े क्या है विश्लेषण?
भारतीय अर्थव्यवस्था की मंद पड़ी गति पर राजनीतिक विश्लेषक और समाजसेवी प्रकाशपुंज पांडेय ने अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त करते हुए कहा है कि, हमारी अर्थव्यवस्था के लिए पहली चुनौती यह है कि देश में इस वक्त बजट घाटा सकल घरेलू आय के प्रतिशत के रूप में काफी बढ़ गया है। खासकर कोरोनावायरस के प्रकोप से हुए देशव्यापी लॉकडाउन के कारण स्थिति और बिगड़ रही है। साथ ही राजनीति से प्रेरित लोकलुभावन वादों के कारण उस पर अंकुश लगाना कठिन हो रहा है। इस बजट घाटे का असर मुद्रास्फीति पर तो पड़ेगा ही अन्ततोगत्वा बजट को संतुलित करने के लिए जनहित की कई महत्वपूर्ण योजनाएं स्थगित करनी भी पड़ सकती हैं। इसलिए तो केंद्र सरकार ने स्पष्ट कर दिया है कि मार्च 2021 तक कोई भी नई सरकारी परियोजनाओं का आरंभ नहीं हो सकता। इससे जनसाधारण की क्षमता और आय पर विपरीत प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी है।
प्रकाशपुन्ज पाण्डेय ने कहा कि इसलिए अब यह आवश्यक हो गया है कि सरकार को अनुपयोगी, लोकलुभावन घोषणाओं पर लगाम लगानी चाहिए और बजट को संतुलित करने के लिए ठोस प्रयत्न करने चाहिए। साथ ही अनावश्यक खर्चों पर भी रोक लगानी चाहिए जैसे लॉकडाउन के समय वीडियो कॉन्फ्रेंसिंग से बात करके भी काम चलाया जा सकता है, वैसे ही आने वाले समय में जहां जरूरी नहीं हो वहां खर्चों पर लगाम लगाना आवश्यक है।
प्रकाशपुन्ज पाण्डेय ने कहा कि दूसरी चुनौती केन्द्र और राज्यों में बढ़ते हुए व्यापारिक ऋण की समस्या है। यद्यपि बजट को संतुलित रखने के लिए और व्यापारिक ऋण की हद बांधने के लिए कई प्रस्ताव पारित किए गए हैं, जिनमें से कइयों को कानूनी दर्जा भी दे दिया गया है, फिर भी केन्द्र और राज्यों की सरकारें निरंतर बड़े प्रमाण में बाजार से ऋण ले रही हैं और इसके कारण केन्द्र और राज्य के बजट का बड़ा भाग ब्याज़ चुकाने में ही खर्च हो रहा है। इस पर रोक लगाने के लिए केंद्र और राज्य सरकारों को रोजगार उत्सर्जन और आय के साधन तलाश करने पर ज्यादा ध्यान देना चाहिए।
प्रकाशपुन्ज पाण्डेय के नजरिए से तीसरी चुनौती उद्योगों की मंद विकास गति है। केन्द्र और राज्य सरकारें देश और विदेशों से बड़े उद्योगपतियों को बुलाकर उनसे निवेश की अपेक्षा कर रही हैं। ‘मेक इन इण्डिया’ के तहत बड़े उद्योगों को कई सुविधाएं और प्रलोभन देकर हर राज्य आमंत्रित कर रहा है। अधिकतर बहुराष्ट्रीय कम्पनियाँ और देश के बड़े उद्योगपति भी, भारत में सस्ता उत्पादन कर विदेश में निर्यात करने की रणनीति पर काम कर रहे हैं। परंतु हकीक़त में देश से औद्योगिक निर्यात बहुत कम हो पाया है, क्योंकि विश्वभर में औद्योगिक पदार्थों की मांग कम हो रही है। फलस्वरूप अनेक प्रलोभनों के बाद भी औद्योगिक उत्पादन में आशातीत वृद्धि नहीं हो रही है। इस नीति की दूसरी कमी है कि बहुत कम प्रमाण में रोजगार सृजन किया जा रहा है जो भारत जैसे देश में, जहां दिनोंदिन बढ़ती हुई संख्या में युवा रोजगार की तलाश में है, एक संकट पैदा कर सकता है। स्पष्टत: जब तक छोटे और मझोले उद्योगों को भी उतना ही प्रोत्साहन नहीं दिया जाएगा जितना कि बड़े उद्योगों को मिल रहा है, भारत की अर्थव्यवस्था की यह कमज़ोरी दूर नहीं हो पाएगी।
प्रकाशपुन्ज पाण्डेय के मुताबिक चौथी चुनौती जो सबसे गंभीर है वह कृषि उत्पादन में आया हुआ स्थगन है। पिछले तीन वर्षों में कृषि में दो-तीन प्रतिशत की वृद्धि भी नहीं हो रही है। इसका सीधा असर किसानों पर पड़ रहा है, क्योंकि उनकी आय बढ़ नहीं पा रही है। खेती के उत्पादन में वृद्धि के लिए अब तक किए गए निवेश का पूरा लाभ किसानों को नहीं मिल रहा है। मसलन, सिंचाई पर खर्च की गई रकम के प्रमाण में सिंचित क्षेत्र की वृद्धि नहीं है और जिसे हम सिंचित क्षेत्र कहते हैं, वहां भी सिंचाई के स्रोतों की फसल में पानी देने की क्षमता कम है। इसी प्रकार कृषि प्रौद्योगिकी की उपलब्धियों की बार-बार घोषणा की जाती है परंतु अब तक किसी भी बड़ी फसल में चमत्कारिक वृद्धि नहीं हुई है। छोटे किसानों की बदहाली और बड़ी संख्या में हो रही किसानों की आत्महत्या स्पष्ट करती है कि इस क्षेत्र में हमारी नीतियाँ सफल नहीं हो रही हैं। साथ ही लॉकडाउन के बाद मज़दूरों को जो क्षति हुई है वह किसी से छिपी नहीं है। अब मज़दूर दूसरे राज्यों में पलायन कम से कम 2 से 3 साल तो नहीं ही करेंगे और उनकी रुचि स्थानीय रोज़गार में ज्यादा बढ़ेगी जिसके कारण औद्योगिक विकास की गति पर शत प्रतिशत पर पड़ेगा। यह भी सरकार के लिए एक सोचनीय विषय है।
कोरोनोवायरस के संकट के बाद वैश्विक मंदी का मुकाबला करने और सतत आर्थिक विकास करने में हम तभी सक्षम होंगे जब ऊपर बताई गई कमजोरियों को दूर कर सकेंगे।