छत्तीसगढ

वर्ष का पहला महापर्व की गूंज गली-गली में, ‘छेरछेरा..माई कोठी के धान ल हेरहेरा’

रायपुर। धान का कटोरा छत्तीसगढ़ । यहां की लोक संस्कृति और परंपराएं समृद्ध हैं। इनमें से एक है दान का महापर्व छेरछेरा। पौष पूर्णिमा को यह पर्व 10 जनवरी 2020 को परंपरागत उल्लास के साथ मनाया जाएगा। दान देने और लेने की अनूठी परंपरा का नाम ही छेरछेरा है। दान-धर्म को बढ़ावा देने के लिए इस पर्व की शुरूआत खासकर छत्तीसगढ़ में हुई, इसे लेकर अनेक किवदंती और मान्यताएं हैं। छेरछेरा मांगने और देने के क्रम में कोई छोटा-बड़ा का भाव नहीं होता है। यह ऐसा पर्व है,जिसमें गांव का गौटिया भी मांगता है और मजदूर भी मुक्त हस्त से अन्न्दान करते हैं। छत्तीसगढ़ की इस अनूठी परंपरा को आज भी गांव के लोग जीवित रखे हैं। संचार के आधुनिक साधनों ने लोकपर्वों की अमिट छाप को नि:संदेह क्षति पहुंचाया है,फिर भी गांवों में इस पर्व का खास महत्व और उत्साह आज भी देखने को मिलता है।
यह पर्व कृषि प्रधान छत्तीसगढ़ प्रदेश में दानशीलता की प्राचीन परंपरा को याद दिलाता है। उत्सव और लोक परंपराएं छत्तीसगढ़ की खास पहचान हैं। सामाजिक समरसता को सुदृढ़ करने वाले इस पर्व की खासियत यह है कि लोग हर घर जाकर छेरछेरा मांगते हैं। बच्चे-बड़े सभी के जुबां पर एक ही स्वर होता है- ‘छेरछेरा..माई कोठी के धान ल हेरहेरा”। इसके साथ ही ‘अरन-बरन कोदो दरन, जभे देबे तभे टरन” का स्वर भी अधिकारपूर्वक मांगने को प्रदर्शित करता है।

पौष पूर्णिमा को मनाया जाता है यह पर्व

जनवरी महीने में हिन्दी मास पौष की पूर्णिमा तिथि को यह पर्व मनाया जाता है। इस दिन सुबह से ही बच्चे, युवक व किशोरियां हाथ में टोकरी, थैला, बोरी आदि लेकर घर-घर छेरछेरा मांगने निकलते हैं। खासकर छोटे बच्चे सुबह से स्नान कर तैयार हो जाते हैं। वहीं युवकों की टोलियां वाद्य यंत्रों के साथ भजन कीर्तन और कहीं-कहीं पर डंडा नृत्य कर घर-घर पहुंचती हैं।
पौष पूर्णिमा तक सभी किसानों के धान की मिंसाई हो जाती है। इससे किसानों के पास अन्न् का भंडार रहता है। लोग उत्साह के साथ हर मांगने वाले को छेरछेरा देते हैं। ऐसी मान्यता है कि छेरछेरा मांगने और देने से दरिद्रता दूर होती है। इस त्योहार के लिए गांवों में कामकाज पूरी तरह बंद रहता है। इस दिन लोग प्राय: गांव छोड़कर बाहर नहीं जाते हैं।
ऐसी जनश्रुति और मान्यताएं हैं कि इस दिन अन्न्पूर्णा देवी और शाकंभरी देवी की विशेष पूजा होती है। ऐसा माना जाता है कि जो भी छेरछेरा का दान करते हैं, वह मृत्यु लोक के बंधनों से मुक्त होकर मोक्ष को प्राप्त करते हैं। पौष पूर्णिमा के पवित्र अवसर पर सभी एक-दूसरे के जीवन में खुशहाली की कामना करते हैं।

ऐसी किवदंती-कथा है प्रचलित

छेरछेरा पर्व के संबंध में पौराणिक और प्रचलित कथा के अनुसार खेतों में काम करने वाले मजदूर जी तोड़ मेहनत करते हैं। जब फसल तैयार हो जाती है तो उस पर खेत का मालिक अपना अधिकार जमा लेता है। मजदूरों को थोड़ी-बहुत मजदूरी के अलावा कुछ नहीं मिलता है । इससे दुखी होकर मजदूर धरती माता से प्रार्थना करते हैं।
मजदूरों की व्यथा सुनकर धरती माता खेत के मालिकों से नाराज हो जाती है, जिससे खेतों में फसल नहीं उगती । धरती माता किसानों को स्वप्न में दर्शन देकर कहती हैं कि फसल में से मजदूरों को भी कुछ हिस्सा दान में दें, तभी बरकत होगी। इसके बाद जब फसल तैयार हुई तो किसानों ने मजदूरों को फसल में से कुछ हिस्सा देना प्रारंभ कर दिया। कालांतर में धान का दान देने की परंपरा बन गई। आज भी ग्रामीण इलाकों में इस परंपरा का पालन श्रद्धा भाव से किया जाता है। यह पर्व छत्तीसगढ़ में विशेष उल्लास के साथ मनाया जाता है।

छेरछेरा पर्व की ऐतिहासिक मान्यता

एक प्राचील पांडुलिपि के अनुसार कलचुरी राजवंश के कोशल नरेश कल्याण साय और मण्डल के राजा के बीच किसी बात को लेकर विवाद हुआ। इस पर सुलह के लिए तत्कालीन मुगल शासक अकबर ने उन्हें दिल्ली बुलाया। कल्याण साय करीब आठ वर्षों तक दिल्ली में रहे। वहां उन्होंने राजनीति व युद्धकाल में निपुणता हासिल की।
इसके बाद कल्याण साय राजा के पूर्ण अधिकार के साथ अपनी राजधानी रतनपुर वापस पहुंचे। जब प्रजा को राजा के वापस लौटने की खबर मिली तो यहां की प्रजा ने पूरे जश्न के साथ राजा का स्वागत किया। और तत्कालीन अठ्ठारहगढ़ की राजधानी रतनपुर पहुंचे गए।
प्रजा के अपने राजा के प्रति इस अनूठे प्रेम को देखकर रानी फुलकैना ने जनता के बीच स्वर्ण मुद्राओं को दान स्वरूप अपने हाथों से बांट दी। साथ ही रानी ने प्रजा को हर वर्ष उस तिथि पर दान मांगने का न्योता भी दिया। उस दिन पौष पूर्णिमा थी। तभी से राजा के उस आगमन को यादगार बनाने के लिए छेरछेरा पर्व मनाया जाता है।

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