छत्तीसगढ

बंदी, प्रशासन और समाज हर स्तर पर जागरुकता ज़रूरी, छत्तीसगढ़ में बंदी अधिकार और जेल सुधार पर परिचर्चा का आयोजन

रविवार। वृंदावन सभागार में मानवाधिकार के मुद्दों पर काम करने वाली दिल्ली की संस्था पैरवी के तत्वावधान में “छत्तीसगढ़ में बंदी अधिकार और जेल सुधार” विषय पर राज्य स्तरीय परिचर्चा का आयोजन रविवार को किया गया। इस परिचर्चा में छत्तीसगढ़ में जेलों और उनमें मौजूद बंदियों की स्थिति, बंदी अधिकारों की स्थिति पर किए गए अध्ययन की रिपोर्ट प्रस्तुत की गई। रिपोर्ट में सामने आए विभिन्न मुद्दों पर वक्ताओं ने अपनी बात रखी और बंदियों के अधिकारों को सुनिश्चित करने के उपायों के बारे में चर्चा की।
परिचर्चा की शुरुआत करते हुए पैरवी के दीनबंधु वत्स ने कहा कि एक बार किसी भी वजह से जेल जा चुके व्यक्ति को समाज हमेशा के लिए शंका की नज़रों से देखने लगता है जिसका प्रभाव उसके पूरे जीवन पर पड़ता है। ऐसी स्थिति में जेलों में मौजूद बंदियों के बारे में नज़रिया और भी ख़राब है। यह समझने की ज़रूरत है कि केवल बंदी होने भर से किसी के समस्त अधिकार ख़त्म नहीं हो जाते, कैदियों के भी अधिकार हैं जिन्हें अनदेखा नहीं किया जा सकता। चूंकि उन्हें इस देश का नागरिक होने के नाते इस देश की कानूनी प्रक्रिया के तहत जेल में रखा गया है तो उन्हें भी देश के अन्य नागरिकों की तरह वोट देने का अधिकार होना चाहिए। जब जेल में रहते हुए एक व्यक्ति चुनाव लड़ सकता है तो दूसरा व्यक्ति वोट क्यों नहीं दे सकता? इसी तरह बंदी जेल में जो काम करते हैं उसकी भी सामान्य लोगों के लिए निर्धारित न्यूनतम मजदूरी उसे मिलनी चाहिए न कि उससे कम।
रिपोर्ट प्रस्तुत करते हुए एडवोकेट आकाश कुंडू ने बताया कि छत्तीसगढ़ में जेलों की स्थिति गंभीर है। जेलों में क्षमता से अधिक बंदियों की संख्या है और स्टाफ की कमी है। जिसकी वजह से जेलों में बंदियों को अमानवीय स्थितियों में रहना पड़ता है। उन्होंने कहा कि जेलों में बंदियों और विशेष रूप से विचाराधीन बंदियों की अधिक संख्या होने का एक बड़ा कारण अदालतों में मामलों का विभिन्न कारणों से लंबित रहना है।
एडवोकेट सोन सिंह झाली ने बस्तर क्षेत्र के संबंध में अपनी बात रखते हुए कहा कि अदालतों में मामले लंबित होने और न्याय में देरी की वजह यह भी है कि पर्याप्त संख्या में कोर्ट नहीं हैं, भौगोलिक दूरी की बाधाओं और पुलिस प्रशासन की देरी के कारण समय पर और निरंतरता के साथ मामले की सुनवाई नहीं हो पाती। दूसरी दिक्कत विधिक सेवा की कार्य प्रणाली में भी है जिसकी वजह से बंदियों को समय पर समुचित मदद मुहैया नहीं हो पाती। उन्होंने न्याय व्यवस्था में भ्रष्टाचार की ओर इशारा करते हुए कहा कि अगर कोर्ट में पहचान और जेब में पैसे नहीं हैं तो पेशी टलती रहती है। इसी संदर्भ में बात को आगे बढ़ाते हुए शिखा पाण्डेय ने कहा कि बस्तर में भाषा की भी समस्या है। कोर्ट की भाषा न तो उस अंचल के लोग समझ पाते हैं, न उनकी भाषा कोर्ट में बैठे जज। बिना सही संवाद के समुचित न्याय संभव नहीं है। उन्होंने यह भी कहा कि कोर्ट के समक्ष आरोपी को प्रस्तुत न किया जाना और गवाहों का गवाही के लिए प्रस्तुत न होना भी न्याय में देरी और जेलों में बंदियों की अधिक संख्या के लिए जिम्मेदार पहलू हैं। ऐसे कई मामले हैं जहाँ सालों तक गवाह प्रस्तुत नहीं हुए और आरोपी जेल में बंद रहा है। आरोपी पर एक से अधिक मामले दर्ज करना भी बस्तर क्षेत्र में इस समस्या का एक और कारण है।
न्यायिक दण्डाधिकारी प्रथम श्रेणी, सुमित सोनी ने कहा कि जागरूकता के अभाव में अब तक बंदियों को विधिक सेवा मुहैया नहीं हो पाती थी। अब जेलों में पीएलवी की नियुक्ति की गई है और विधिक सेवा के सचिव की यह जिम्मेदारी है कि सप्ताह में एक दिन वह स्वयं जाकर गतिविधियों की निगरानी करें। इस विषय में सुधार और अधिकार सुनिश्चित करने के लिए बंदी, प्रशासन और समाज हर स्तर पर जागरुकता ज़रूरी है। छत्तीसगढ़ महिला अधिकार मंच की सुश्री दुर्गा झा ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि पुलिस प्रशासन व न्याय व्यवस्था का राजनैतिक दबाव से मुक्त होना बहुत महत्वपूर्ण बिंदु है, जिसके बिना जेल में बंदियों के साथ भेदभावपूर्ण व्यवहार को समाप्त नहीं किया जा सकता। महिला कारागारों की स्थिति तुलनात्मक रूप से अच्छी है लेकिन वहाँ भी संख्या दबाव और स्वास्थ्य सुरक्षा की दृष्टि से स्थितियां गंभीर हैं। उन्होंने कहा कि विधिक सेवा, जेल प्रशासन और सिविल सोसायटी के बीच एक ब्रिज निर्माण होना चाहिए ताकि बंदी अधिकारों और जेल सुधार के प्रयासों को बेहतर किया जा सके।
रायपुर सेन्ट्रल जेल के रिटायर्ड चीफ वार्डन घनश्याम प्रसाद साहू ने अपने अनुभव साझा करते हुए कहा कि जेलों किया सबसे बड़ी समस्या बंदियों की अधिक संख्या और समय पर बंदियों की कोर्ट में पेशी न हो पाना है, खासकर छोटे-मोटे अपराध में जेल आए बंदियों की समय पर पेशी न हो पाना।
एडवोकेट राजिन सोरेन ने मॉडल जेल मैनुअल व अन्य कई आदेशों के अब तक लागू न होने पर चिंता व्यक्त की।

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