छत्तीसगढ

‘वेद-वेदांग में भाषा-चिंतन’ और ‘भाषा चिंतन की दार्शनिक पृष्ठभूमि’ पर विद्वानों किया विमर्श

वर्धा, 13 जनवरी।  महात्मा गांधी अंतरराष्ट्रीय हिंदी विश्‍वविद्यालय, वर्धा एवं विद्याश्री न्यास, वाराणसी के संयुक्त तत्वावधान में आयोजित तीन दिवसीय (12,13,14)  वेबिनार के उदघाटन के बाद मंगलवार को प्रथम सत्र का वक्तव्य ‘वेद-वेदांग में भाषा-चिंतन की दार्शनिक पृष्ठभूमि’ विषय पर केन्द्रित रहा।  वक्ता के रूप में दीनदयाल उपाध्‍याय गोरखपुर विवि के संस्‍कृत विभाग के अध्‍यक्ष प्रो. मुरली मनोहर पाठक ने अपने विचार रखें। उन्होंने कहा कि सर्वप्रथम, वेदांगों में शिक्षा का परिणन होता है। बार-बार किसी चीज का अभ्यास ही शिक्षा है। साथ ही उच्चारण की महत्ता की ओर संकेत करते हुए उत्तर तथा दक्षिण भारत में उच्चारण की विभिन्नता का उल्लेख किया । ‘वैदिक संस्कृत में वाक् तत्त्व’ विषय पर काशी हिंदू विवि वाराणसी के संस्‍कृत विद्या धर्मविज्ञान संकाय के प्रो. बिंदेश्‍वरी प्रसाद मिश्र ने कहा कि परब्रह्म के लिए वाक् तत्त्व का सहारा अनिवार्य है।  राजीव गांधी कैंपस, शिंगेरी कर्नाटक के प्रो. गणेश ईश्वर भट्ट ने कहा कि समस्त वर्णों का मूल ओंकार है।  विषयगत जिज्ञासा की उत्पत्ति अनिवार्य है जो उपनिषद करता है । केंद्रीय संस्‍कृत विवि श्री रणवीर कैंपस, जम्‍मू के वेद विभागाध्‍यक्ष  संस्कृत के आचार्य प्रो. मनोज कुमार मिश्र ने ‘निरुक्त के परिप्रेक्ष्य में निर्वचन एवं अर्थविज्ञान’ विषय पर वक्तव्य दिया। उन्‍होंने कहा कि परंपरा का आरम्भ वेद से ही हुआ । उन्होंने संकेत किया कि निमित्त किसी पाश्चात्य के सामने अपने विचारों को तौलना उचित नहीं है।

सत्र में अध्यक्षीय उद्बोधन महात्‍मा गांधी काशी विद्यापीठ के संस्‍कृत विभाग के पूर्व अध्‍यक्ष  प्रो. राममूर्ति चतुर्वेदी ने दिया। उन्होंने वेद से अपनी बात प्रारम्भ करते हुए वेदांग तक की चर्चा की। उन्होंने कहा कि वाक्-तत्त्व और कुछ नहीं, ब्रह्म तत्त्व ही है । जो ब्रह्म तत्त्व है, वह वेद ही है। वेदों में किये गये भाषा-चिंतन की ओर भी प्रो. चतुर्वेदी ने संकेत किया।  सत्र का संचालन डॉ. जगदीश नारायण तिवारी ने किया।

 भाषा चिंतन की दार्शनिक पृष्ठभूमि पर वक्‍ताओं ने किया विमर्श

राष्ट्रीय संगोष्ठी के दूसरे सत्र का विषय ‘भाषा चिंतन की दार्शनिक पृष्ठभूमि’ था। सत्र की अध्यक्षता जयनारायण व्यास विश्वविद्यालय, जोधपुर के संस्कृत विभाग के पूर्व अध्यक्ष प्रोफेसर धर्मचंद्र जैन ने की।

सत्र में पांडुचेरी विश्वविद्यालय के संस्कृत विभाग के प्रो. के. ई. धरनीधरण ने ‘नैयायिक मत में शब्द-प्रमाण और शब्द-बोध’ पर अपनी बात रखते हुए  गौतम के सूत्र का संदर्भ दिया। उन्‍होंने कहा कि शब्द-प्रमाण की जो व्यापकता इनमें है वह किसी भी दर्शन में नहीं है। उन्‍होंने ‘पदति पदस्य अर्थः’ का उल्‍लेख कर न्याय की दृष्टि से पद का अर्थ शब्द से अर्थ के ज्ञान को स्वीकार करना बताया।

संपूर्णानंद संस्कृत विश्‍वविद्यालय, वाराणसी के आचार्य प्रो.कमलाकांत त्रिपाठी ने ‘पूर्व मीमांसा में भाषा विज्ञान के संकेत’ पर अपनी बात रखते हुए भाषा विज्ञान के अनुशीलन की परिपाटी को स्पष्ट किया। उन्‍होंने ‘भाषा विज्ञायाते यत तर भाषा विज्ञानाम्’ को उधृत कर कहा कि भाषा की विशिष्ट ज्ञान का साधन ही भाषा विज्ञान है।

संपूर्णानंद संस्कृत विश्‍वविद्यालय, वाराणसी के वेदांत विभाग एवं दर्शन संकाय प्रमुख प्रो.सुधाकर मिश्र ने विद्यानिवास मिश्र का संस्मरण करते हुए ‘प्रस्थान त्रयी के आलोक में भाषा-चिंतन ‘ पर विचार रखे। उन्‍होंने भाषा को भाव की अभिव्यक्ति का साधन माना। उन्होंने यह भी कहा कि वेद को पढ़ने से स्त्रियों का निषेध गलत धारणा है, ऐसा नहीं था। उन्‍होंने वेदों में शब्दार्थ से महत्वपूर्ण तात्पर्यार्थ को माना।

काशी हिंदू विश्‍वविद्यालय के संस्कृत विद्या धर्मविज्ञान संकाय के पूर्व प्रमुख प्रो. कृष्णकांत शर्मा ने ‘सांख्य-दर्शन में शब्दार्थ’ पर विचार रखे। इन्होंने शब्द और अर्थ के बीच तादात्म्‍य संबंध को खारिज करते हुए वाच्य- वाचक संबंध पर बल दिया और कहा कि वाच्य- वाचक के बीच संकेत सबसे महत्वपूर्ण है। उन्‍होंने लोक और वेद के बीच संबंधों को रेखांकित करते हुए मनुष्य की चित्तवृत्ति को शब्दार्थ के लिए प्रमुख माना।

काशी हिंदू विवि के दर्शन विभाग के प्रो. सच्चिदानंद मिश्र ने ‘नव्य न्याय का भाषा दर्शन’ विषय पर अपनी बात रखी। पश्चिमी विचारक कांट का जिक्र करते हुए उन्‍होंने कहा कि कांट ने ही ज्ञान – प्राप्ति के विवाद को सुलझाया। चूंकि भाषा ही ज्ञान प्राप्ति का माध्यम है। भाषा किस प्रकार से अपने अर्थ को बताती है, इस पर कई दृष्टियों से चिंतन हुआ है लेकिन इसके बावजूद कई चीजों के बारे में भारतीय परंपरागत चिंतन में विचार नहीं किया गया। उन्‍होंने ‘ट्रांसपेरेंसी थियरी ऑफ लैंग्वेज’ के साथ ‘सेंस’ और ‘रिफरेंस’ पर बात करते कहा कि शक्ति द्वारा अर्थ की उपस्थिति ही भाषा को खड़ा करती है।

संपूर्णानंद संस्कृत विश्‍वविद्यालय के शैव आगम विभाग के पूर्व आचार्य प्रोफेसर शीतला प्रसाद उपाध्याय ने ‘तंत्र शास्त्र में भाषाशास्त्रीय विमर्श’ पर बोलते हुए कहा कि तंत्र शास्त्र में शब्द ब्रह्म स्वरूप है। उन्‍होंने पश्यंति, मध्यमा और बैखरी का ज़िक्र करते हुए भूत-प्रेतों की आवाजों का संबंध अंतर-बैखरी से जोड़ा। उन्होंने स्फोट विज्ञान, नाद विज्ञान का उल्‍लेख कर भाषा में ध्वनि के स्वरूप को उद्घाटित किया।

काशी हिंदू विवि वाराणसी के दर्शन के विद्वान प्रो. देवेंद्र नाथ तिवारी ने कहा कि शब्द प्रमाण है या नहीं? सभी विद्वान शब्दों से ही इसे स्वीकारते और नकारते हैं। उन्‍होंने कहा कि ज्ञान कोई वस्तु नहीं जिसे उत्पन्न किया जा सके। वह प्रकाशित होता है, जिसे ‘ स्फोट’  कहा गया है। उन्‍होंने कहा कि स्मृति जब भी वर्तमान में शब्द से प्रकाशित होगा, तभी उसका अस्तित्व है। लिपियों और बोलियों को इन्होंने वस्त्र की तरह माना जो क्षेत्र विशेष में अलग -अलग होगा ही। लेकिन दर्शनशास्त्र बिना विचार के संभव नहीं है और विचार बिना भाषा के।

अध्यक्षीय वक्तव्य देते हुए  प्रो. धर्मचंद्र जैन कहा कि शब्दों के अर्थ भूमिका से तय होते हैं, इसलिए परंपरा में कई तरह से भाषा चिंतन हुआ है। तंत्र शास्त्र पर टिप्पणी करते हुए प्रो. जैन ने कहा कि गंभीर साधना करने वाला ही तंत्र की भाषा समझ सकता है। उन्होंने बौद्ध और जैन दर्शन की परंपरा में भाषा चिंतन पर विचार रखे। इनके अनुसार बौद्ध दर्शन में शब्द का अर्थ के साथ कोई संबंध नहीं है। शब्द विकल्प से उत्पन्न होते हैं और विकल्प शब्द से। यह दर्शन शब्द और अर्थ में तादात्म्य संबंध भी नहीं मानता क्योंकि शब्द को कान से सुनते हैं, लेकिन पदार्थ को आंख से देखते हैं, तो कैसे तादात्म सम्बन्ध होगा? जैन दर्शन शब्द को पुद्गल यानी द्रव के रूप में मानता है। वह मानता है कि शब्द टकराकर लौट सकते हैं लेकिन गुण नहीं। इस दृष्टि से जैन दर्शन में भिन्न भाषा चिंतन है। इस दर्शन में यह भी माना गया है कि भाषा वज्राकार होती है जो वज्र की तरह दूर तक जा सकती है। प्रो. जैन ने कहा कि जीव ही भाषा की उत्पत्ति करता है। जिनमें संकेतों का अपना महत्व है। संकेत जैसा होगा वैसा ही अर्थ का ग्रहण होगा।  उन्‍होंने कहा कि देशकाल के हिसाब से शब्द अपना अर्थ बदलता रहता है। इसलिए भाषा- चिंतन की  परंपरा अनवरत चलती रहेगी। सत्र का संचालन डॉ. जयंत उपाध्याय ने किया।

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