छत्तीसगढ

सभ्यता, संस्कृति के संवाहक तालाब

लेखक- विजय मिश्रा “अमित”
अति. महाप्रबंधक (जनसंपर्क)
छ.रा. पावर होल्डिंग कंपनी, रायपुर
घर के बंद बाथरूम में रखी बाल्टी में भरे पानी से बच्चों को नहलाते हुये जब मैंने बताया कि बचपन में हम तालाब में नहाया करते थे, तो बच्चों ने कौतुहल भरे लहजे में पूछा- पापा जी तालाब क्या-कैसा होता है ? उनके इस प्रष्न से मेरे दिलदिमाग में बिजली सी कौंध गई। तालाब के प्रति बच्चों का अनजानापन मुझे एक अपराधबोध का एहसास करा गया। मुझे लगा अपनी सभ्यता, संस्कृति, रीति-रिवाज और संस्कारों से अनजान बनाने का काम जाने-अनजाने संभवतः हम स्वयं कर रहे हैं। अपनी इस भूल को सुधारने की दृष्टि से मैंने बच्चों को अनेक तालाब प्रत्यक्ष रूप से दिखाये, ताकि वे समझ सकें ‘‘तालाब की आब’’ को ।
तालाबो को देखकर बच्चों ने नाक-भौं सिकुड़ते हुये कहा- छी..छी … इतनी गंदी जगह, इतने गंदे पानी में आप नहाते थे ? आपको किसी प्रकार की ‘‘स्कीन डिसीज’’ नहीं होती थी ? बच्चों की बातों से मैं तो आहत हुआ ही, पर साथ ही मुझे लगा कि तालाब भी अपनी दुर्दषा पर जार-जार ऑसू बहा गया होगा। बच्चों को कौन समझायें कि तालाब आज क्या से क्या हो गये हैं।
लगभग चार दषक पूर्व की बात है जब रायगढ़ जिले के करीब स्थित गॉव ‘‘जतरी’’ में प्राइमरी स्कूल में अध्ययनरत रहते हुये अपने सहपाठियों के साथ तालाब का पानी पीकर हम प्यास बुझाया करते थे। तालाब के अंदर घुटने की गइराई तक हम घुस जाते थे और झुककर सीधे तालाब के ऊपरी जल स्तर पर मुंह सटाकर बेझिझक पानी पी लिया करते थे। प्यास बुझाने का यह क्षण हमारे लिये बड़ा मजेदार और तृप्तिदायक हुआ करता था, किन्तु अब नई पीढ़ी हमारी इस हरकत को ‘‘आदिमानव’’ की प्रवृत्ति करार देगी। सच ही तो है बंद बोतल का पानी पीने वाली नई पीढ़ी स्वच्छ जलाषय में एकत्रित प्रकृति प्रदत्त जल के स्वाद को भला कैसे समझ पायेगी।
जनसामान्य को जल आपूर्ति करने का एक सषक्त स्रोत तालाब होते थे। वर्षा जल संग्रहण के ये परंपरागत साधन ‘‘ग्राउन्ड वॉटर लेबल रीचार्ज’’ के भी उत्कृष्ट पात्र थे। सभी जीव जन्तुओं की प्यास बुझाने वाले ये जलागार ‘‘वसुधैव कुटुम्बकम्ब’’ की अवधारणा को प्रबल बनाते थे। हर गॉव शहर में पहले कम से कम एक तो विषालकाय स्वच्छ तालाब होता था। निर्मल जल से लबालब तालाबों में कमल, कुमुदनी खिले होते थे।  तालाबों के तट पर आम,बरगद, पीपल, नीम के हरे-भरे वृक्षों पर तोता-मैना, बुलबुल, फाख्ता जैसे पक्षियों का कर्णप्रिय कलरव से मन गदगद हो जाया करता था। तालाब के पार पर देवालयों की स्थापना होती थी, जहॉ पर्व विषेष पर बड़े बड़े मेला लगते थे।
छोटे छोटे गॉव से लेकर बड़े बड़े शहरों में  तालाबों की उपादेयता इन कारणों से स्वमेव उजागर होती थी। इसलिये जीवनदायिनी जल की आपूर्ति-संग्रहण करने वाले तालाबों को देवस्थान की तरह पूज्य माना जाता था। अब तो स्थिति ठीक इसके विपरीत हो चुकी है। स्वच्छ सुंदर तालाब देखना अब ख्वाब सा हो गया है। आज की स्थिति में अब शायद ही ऐसा कोई गॉव-शहर बचा होगा जहॉ दिखाने के लिये भी एक स्वच्छ तालाब शेष होगा।  अब तो तालाबों पर जलकुंभी का साम्राज्य हो चुका है। गंदे जानवरों के नहाने का स्थान बनकर रह गये हैं तालाब। इनमें तरह तरह की गंदगियों ने अपने पैर जमा लिये हैं। यह एक बड़ी विडम्बना-दुर्भाग्य है कि तालाबों की हिफाजत एवं संरक्षण के प्रति आज चहॅुओर हद-दर्जे तक लापरवाही नजर आ रही है।
जनता का, जनता के लिये, जनता के द्वारा अथवा जनमत से चुनी गई सरकार के द्वारा निर्मित किये गये जलागार होते हैं तालाब। अतः इनकी स्वच्छता संरक्षा का सीधा दायित्व आमजन के कंधो पर ही है, किन्तु विकास की सीढ़ी चढ़ते लोग अक्सर अपने पुरखों की पूॅजी को किस तरह से बर्बाद करते दिख रहे हैं उसका एक जीवन्त उदाहरण गॉव-षहर में कचरे और पॉलिथीन से पटते तथा गंदगियों से बजबजाते तालाब भी हैं।
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तालाबों के नष्ट होने के लिये प्रथम दोषी जनता ही है जिसकी जन्मजात प्रवृत्ति स्वार्थ होती है। इसी के चलते इतिहास के पन्नों में दर्ज अनेक तालाब अब ‘‘जमीन के लालची’’ लोगों के हाथ दफन होकर अपनी पहचान खो चुके हैं। शहरों के बाद अब जबकि गॉव गॉव में नल, नलकूपों से पानी मिलने लगा है तो तालाब से लोगों ने न केवल मुंह फेर लिया है, बल्कि इसे कचरा-कूड़ा, मल-मूत्र फेंकने की जगह बना लिया है। शहरभर की नालियों का अंत तालाबों में ही होता दिखाई दे रहा है। विभिन्न प्रकार के केमिकल पदार्थों से निर्मित देवी देवताओं की मूर्तियॉ विसर्जन से भी तालाब के पानी प्रदूषित हो रहे हैं, फलतः प्रदेष के अनेक तालाब अब अंतिम संासे गिन रहे हैं।
एक जमाना था जब लोग स्वेच्छा से श्रमदान करके तालाबों का गहरीकरण और सफाई अभियान में जुटते थे। आज वही लोग इन कार्यों के लिये शासन की ओर मुंह ताकते दिखाई दे रहे हैं।  यह भी देखने में आया है कि सरकारी बजट पर तालाबों के सौंदर्यीकरण का प्रयास भी किया गया तो लोगों ने  वहॉ की रेलिंग और सीमेंट निर्मित घाट को तोड़ने में कोई कसर नहीं छोड़ा।
छठ पर्व पर तालाबों में उमड़ती भीड़, पितृपक्ष पर जलाषयों में पितरों को जल अर्पण करते लोगों की संख्या आज भी उत्साहजनक है। धर्मांचरण करने में आज भी छत्तीसगढ़ की जनता बहुत आगे है। यहां पर तो जनम-मरण में तालाब का कार्यक्रम विषेष रूप से रखा जाता है। अगर इन्हीं धर्मावलम्बियों में एकजुटता आ जाये, तालाबों के संवर्धन-सरंक्षण की जिद्द घर कर जाये तो एक बड़े चमत्कारिक परिणाम की आषा की जा सकती है। बड़ी बड़ी सामाजिक संस्थायें प्रदेष में, नगर में सक्रिय हैं। तालाबों के प्रति उदासीन हो चुके लोगों को जगाने की महती जिम्मेदारी इन पर है। अगर अपनी प्राथमिकताओं में तालाब संरक्षण को ये शामिल कर लें तो निष्चित रूप से गॉव शहर के बढ़ते तापमान, घटते जलस्तर को रोकने का आत्मसंतोष इन्हें अवष्य प्राप्त होगा। साथ ही पूर्वजों की भॉति नई पीढ़ियों में भी जलागारों के प्रति आदर भाव जगाने की दिषा में यह एक कारगर प्रयास होगा।
विकास के लिये मची अंधी दौड़ की होड़ में तालाबों के अस्तित्व पर गहराते संकट भविष्य में लाईलाज नासूर बनने का संकेत अब स्पष्ट रूप से दे रहे हैं। इसका आंकलन कर छत्तीसगढ़ में तालाबों, नदियों की सफाई, गहरीकरण एवं जलसंग्रहण का कार्य जनसहयोग से गंभीरतापूर्वक आरम्भ किया गया है। यह अत्यन्त हर्ष की बात है।  ऐसे बहुजन हिताय-बहुजन सुखाय के कार्यों से जुड़े पवित्र हाथों के साथ जुड़ने का संकल्प लेते हुये कहना उचित होगा- आईये तालाब को साफ करें, तालाब संरक्षकों को आदाब करें।

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